निहितार्थ तक सार्थक यात्रा
June 20th, 2022

कुछ समय पहले ‘कृष्ण शिलाएँ, हरित शिलाएँ’ कविता की जालवृत्ति डाली थी। उस कविता की संकल्पना आकार लेने के पीछे पश्चिमी घाटों की भूमिका है। मैं यूट्यूब पर पश्चिमी घाटों में दुर्गम चढ़ाई (ट्रेकिंग) के वीडियो रुचिवश देखता रहता हूँ। यदि आपने कभी वो देखे होंगे, या देखेंगे, अथवा यदि आप उस भौगोलिक क्षेत्र से परिचित होंगे, तो आपका ध्यान भी इस ओर अवश्य जाएगा कि कैसे बरखा में एकदम हरियाती पहाड़ियाँ ग्रीष्मकाल आते ही सूख कर, नंगे-बुच्चे, नीरस, कठोर भू-दृश्य में परिवर्तित हो जाती हैं। यही बात ध्यान में आने पर पहली कविता लिखने की प्रेरणा मिली। कुछ वैसे ही, कुछ समय पहले बस यात्रा में एक घाट पार करते समय, भर गर्मी में चारों ओर घिरी पहाड़ियों की गोद में, तलहटी पर बैठे एक हरे-भरे खेत और कुटिया को देखा। शुष्क क्षेत्र और ग्रीष्म ऋतु होने के कारण पहाड़ियों के पेड़ तो सूख कर अपनी पत्तियाँ गिरा चुके थे, किन्तु तलहटी में बहते छोटे से नाले में बहता पानी, उससे लगे खेत और उसके आसपास के पेड़ों-झाड़ियों को हरा-भरा रखे हुए था। बस यही दृश्य देख कर पहली कविता का अगला भाग लिखने की प्रेरणा मिली। अब जब कुछ दिनों पहले मैं यह लिख कर पूर्ण कर पाया, तो आज यहाँ साझा कर रहा हूँ। आशा है थोड़ा-बहुत अच्छा रच पाया हूँ। कविता का शीर्षक कुछ अच्छा नहीं सूझा, तो काम-चलाऊ सा रखा है…

निहितार्थ तक सार्थक यात्रा

बैठा था मैं, मन विकल,
यमदूत-सा जगत सकल,
शुष्क धरा से मिली यन्त्रणा,
मृग मरीचिका की वञ्चना,
माथे पर सूर्य किरण घन चोट,
नहीं कहीं हरितिमा की ओट,
मूढ़ था, जो बाँधी थी आस,
देख सुदूर शैल पर घास।

उठा मैं जाने को छूट,
जाए यह डोरी अब टूट,
निश्चित कर आगे बढ़ा,
चट्टान के छोर पर खड़ा,
नीचे थी विस्तृत, अतल खाई,
दिखती नहीं जिसकी गहराई,
साँस खींच, मुट्ठी भींच, आँखें मींच,
मन से कहीं आशा-किरण लूँ खींच?
नहीं कहीं मिली वह भी,
लगा ही दूँ अन्तिम डुबकी!?

लेने के पहले वो अन्तिम पग,
चारों ओर दौड़ा लूँ दृग,
पलकें खोली कर यह विचार,
देखा नीचे खाई का विस्तार,
अतल नहीं, दिखता है तल,
नीचे बह रहा जल निर्मल,
आती होगी ध्वनि कलकल,
पुलकित मेरा अस्तित्व सकल।

सूर्य-तेज का भूला मैं त्रास,
मन पर छाया केवल उल्लास,
कल्पना में बसी पुष्प सुवास,
मरु गिरी पर मधुमास का भास,
करता नवीन शक्ति संचार,
नीचे उतरूँ, यही दृढ़ विचार,
ले चला फिर नीचे की ओर,
अबके वहीं बाँधूगा ठौर।

पहुँचा जब नीचे, था बसन्त छाया,
बदली हुई थी धरा की काया,
कलकल अविरल निर्मल जल,
प्रवाह में नहीं पहले-सा छल,
फलाच्छादित हरित तरु विनीत,
लताओं में सरसराते मलयानिल गीत,
डालों पर बैठे पंछियों का कलरव,
भ्रमर चित्रपतंगों से गुंजित भव।

मनमोहक दृश्य को निहारता,
प्रसन्नचित्त बैठा मैं अब विचारता,
शिखर की हरियाली सदा छलना,
सन्तुष्टि में ही जीवन है फलना,
उत्तुंग शिखराकांक्षाओं की आग,
भस्म कर देती जीवन से राग,
किन्तु यात्रा नहीं होती कोई व्यर्थ,
बस समझना होता निहित अर्थ।

~ निमित्त

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